Posts

Showing posts from November, 2017

मेरे जज़्बात

*तेरी बुराइयों* को हर *अख़बार* कहता है और तू मेरे *गांव* को *गँवार* कहता है // *ऐ शहर* मुझे तेरी *औक़ात* पता है // तू *चुल्लू भर पानी* को भी *वाटर पार्क* कहता है // *थक* गया है हर *शख़्स* काम करते करते // तू इसे *अमीरी* का *बाज़ार* कहता है। *गांव* चलो *वक्त ही वक्त* है सबके पास !! तेरी सारी *फ़ुर्सत* तेरा *इतवार* कहता है // *खामोश* होकर *फोन* पर *रिश्ते* निभाए जा रहे हैं // तू इस *मशीनी दौर* को *परिवार* कहता है // तेरी *परवरिश* में *खो दी* सारी जिंदगी उन्हों ने , तू उन *माँ बाप* को अब *भार* कहता है // *वो* मिलने आते थे तो *कलेजा* साथ लाते थे, तू *दस्तूर* निभाने को *रिश्तेदार* कहता है // बड़े-बड़े *मसले* हल करती थी *पंचायतें* // तु अंधी *भ्रष्ट दलीलों* को *दरबार* कहता है // बैठ जाते थे *अपने पराये* सब *बैलगाडी* में // पूरा *परिवार* भी न बैठ पाये उसे तू *कार* कहता है // अब *बच्चे* भी *बड़ों* का *अदब* भूल बैठे हैं // तू इस *नये दौर* को *संस्कार* कहता है *........//*