Gazals (Nasihat)
{1}
नादां रहा हो कोई या उस्तादे फन रहा
मरने के बाद सबका एक सा कफ़न रहा
बिन जेब के लिबास में जाना पड़ा उसे
ताउम्र जिसके पास तिजोरी में धन रहा
जो आज शाम मिट्टी की ढेरी मे मिल गया
मिट्टी के उस शरीर का लाखों जतन रहा
जो आज कब्र में पड़ा है देह सिकोड़े
कल कह रहा था मेरा नया बंगला बन रहा
सबका हुआ जो हाल वही तेरा भी होगा
किस बात पर '' तू है इतना तन रहा
{2}
*किसी शायर ने मौत को क्या खुब कहा है...*
*जिन्दगी मे दो मिनट कोई मेरे पास ना बैठा,
आज सब मेरे पास बैठे जा रहे थे ?*
*कोई तौफा न मिला आज तक,
और आज फूल ही फूल दिए जा रहे थे ?*
*तरस गये थे हम किसी एक हाथ के लिये,
और आज कधें पे कधें दिए जा रहे थे ?*
*दो कदम चलने को तैयार न था कोई,
और आज काफिला बन साथ चले जा रहे थे ?*
*आज पता चला मुझे मौत कितनी हसीन होती है ?
कम्बख्त हम तो यूहि जिन्दगी जिए जा रहे थे....!!!*
{3}
कचरे में फेंकी हुई रोटी
रोज़ ये बयां करती है।
कि पेट भरने के बाद
इन्सान अपनी औकात भूल जाता है।
ठण्डा चूल्हा देखकर रात गुजारी उस गरीब ने,
कमबख्त आग थी की पेट में रात भर जलती रही।
{4}
दरवाज़ों पे खाली तख्तियां अच्छी नहीं लगती,
मुझे उजड़ी हुई ये बस्तियां अच्छी नहीं लगती !
चलती तो समंदर का भी सीना चीर सकती थीं, '
यूँ साहिल पे ठहरी कश्तियां अच्छी नहीं लगती !
खुदा भी याद आता है ज़रूरत पे यहां सबको,
दुनिया की यही खुदगर्ज़ियां अच्छी नहीं लगती !
उन्हें कैसे मिलेगी माँ के पैरों के तले जन्नत,
जिन्हें अपने घरों में बच्चियां अच्छी नहीं लगती !
नादां रहा हो कोई या उस्तादे फन रहा
मरने के बाद सबका एक सा कफ़न रहा
बिन जेब के लिबास में जाना पड़ा उसे
ताउम्र जिसके पास तिजोरी में धन रहा
जो आज शाम मिट्टी की ढेरी मे मिल गया
मिट्टी के उस शरीर का लाखों जतन रहा
जो आज कब्र में पड़ा है देह सिकोड़े
कल कह रहा था मेरा नया बंगला बन रहा
सबका हुआ जो हाल वही तेरा भी होगा
किस बात पर '' तू है इतना तन रहा
{2}
*किसी शायर ने मौत को क्या खुब कहा है...*
*जिन्दगी मे दो मिनट कोई मेरे पास ना बैठा,
आज सब मेरे पास बैठे जा रहे थे ?*
*कोई तौफा न मिला आज तक,
और आज फूल ही फूल दिए जा रहे थे ?*
*तरस गये थे हम किसी एक हाथ के लिये,
और आज कधें पे कधें दिए जा रहे थे ?*
*दो कदम चलने को तैयार न था कोई,
और आज काफिला बन साथ चले जा रहे थे ?*
*आज पता चला मुझे मौत कितनी हसीन होती है ?
कम्बख्त हम तो यूहि जिन्दगी जिए जा रहे थे....!!!*
{3}
कचरे में फेंकी हुई रोटी
रोज़ ये बयां करती है।
कि पेट भरने के बाद
इन्सान अपनी औकात भूल जाता है।
ठण्डा चूल्हा देखकर रात गुजारी उस गरीब ने,
कमबख्त आग थी की पेट में रात भर जलती रही।
{4}
दरवाज़ों पे खाली तख्तियां अच्छी नहीं लगती,
मुझे उजड़ी हुई ये बस्तियां अच्छी नहीं लगती !
चलती तो समंदर का भी सीना चीर सकती थीं, '
यूँ साहिल पे ठहरी कश्तियां अच्छी नहीं लगती !
खुदा भी याद आता है ज़रूरत पे यहां सबको,
दुनिया की यही खुदगर्ज़ियां अच्छी नहीं लगती !
उन्हें कैसे मिलेगी माँ के पैरों के तले जन्नत,
जिन्हें अपने घरों में बच्चियां अच्छी नहीं लगती !
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