मौलवी साहब की बेटियाँ

* मौलवी साहब की बेटियाँ *

*"दर्द हल्का है, साँस भारी है,*
*जिये जाने की रस्म जारी है।।"*

5 जील-हज को एक बड़ी बेटी ने कहा, "बाबा अब ईद के लिए पांच दिन रेह गए है हम ने अभी तक कुछ भी खरीदारी नही की है।"

मौलवी साहिब ने कहा अच्छा मेरी प्यारी बच्ची !!!


अभी बहोत दीन है खरीद लेंगे चाँद रात से एक दिन पहले सब कुछ खरीद लेंगे ।


मौलवी साहब यह बात केह ही रहे थे कि अज़ान सुनाई दी मौलवी साहब जो आंखें बेटी को झूठी तसल्ली देने पर शर्मिंदगी से झुकाए हुए थे उनको मौका मिल गया और मस्जिद की तरफ चल दिए ।


ईद से एक दिन पहले जब मौलवी साहब हर तरफ से मायूस हो गए क्योंकि माँगने से शर्मिंदगी मेहसूस होती है और कर्ज़ लेना नहीं चाहते क्योंकि वापस लौटाने की कोई उम्मीद ही नहीं दिखाई दे रही थी और खुद से किसी को तौफीक नहीं हुई क्योंकि मौलवी साहब के बच्चों के कहाँ दिल होते हैं जो मचलते हों वो कौनसे एहसास रखते है उन्हें कहाँ बाहर जाना होता है ।


तो मौलवी साहब जो के तावेलों के बेताज बादशाह थे दलील तो उनके घर की नोकरानी थी समझाने में तो माहिर थे जब कोई इंतेजाम न हुआ तो सोचा आज जितनी फ़ुज़ूल खर्च और कम कसर करने के बारे में पढ़ा है वो घर जा कर सभी को सुनाऊंगा और बेटी को राजी करूंगा कि बेटा बड़ी ईद पर कोई कपड़े नहीं पहनता यह तो कुर्बानी का ईद है लेकिन दिल धड़क रहा था कि बेटी भी तो मौलवी की है यह केह दिया कि कुर्बानी भी तो आप नहीं कर रहे हो फिर में क्या जवाब दूँगा ।


खैर, सारे मामले को दिमाग मे लिए में घर की तरफ रवाना हुवा तो......
बेटीयाँ हाथों में पर्चियाँ ले कर इंतेज़ार कर रही थी कि बाबा जान ने आज का वादा किया है तो हमें हमारी ज़रूरत की चीजें दिला देंगे ।

जैसे ही मौलवी साहब खंगुरा मरते हुए दाखिल हुए तो उन की बीवी समझ चुकी थी के बेटियों के दिल टूटने वाले हैं तो वो जल्दी से गई और पियाज ले आई के पियाज काटने के बहाने आँसू बहा लेंगे । क्यों के माँ तो माँ होती है । उस के आँसू ओलाद के लिए तो पलकों की देहलीज़ पर ही बसेरा करते हैं । लेकिन वो बेटियों के सामने अपने शोहर को टूटता ना देख सकेगी । मौलवी साहब बैठे तो छोटी बेटी आने लगी कि पर्ची हाथ मे थमा दूँ । मौलवी साहब पलकें चुकाएँ अपनी जुतियाँ उतारने लगे और टोपी लपेट के रखी जो के ये निशानी होती है के इस के बाद अब बाहर नही जाना के अचानक छोटी बेटी को बड़ी बेटी ने उस का हाथ पकड़ कर इशारे से रोक दिया । उस के हाथ से पर्ची ले कर अपनी पर्ची में मिला कर चटाई के नीचे रख दी । ये सब मौलवी साहब अपनी तिरछी निगाहों से देख रहे थे । फिर भी अनदेखा कर रहे थे । मौलवी साहब की बीवी के आँसु   बहे जा रहे थे । मौलवी साहब का सारा इल्म ना काम हो गया । उन्हें लगा जैसे वो सब से ज़्यादा जाहिल और उजड़े हुए गँवार हों ।
इस से पहले की मौलवी साहब कुछ केहते तो बेटी ने कहा बाबा जान कल हम नए कपड़े नही लेंगे क्यों कि बड़ी ईद तो कुर्बानी की ईद है और कल आप को चाचु के दो बछड़े भी तो कुर्बानी करते हुए देखना है तो सारा दिन तो कुर्बानी में लग जायेगा हम कपड़े कोन से वक़्त पहनेंगे ।????
छोटी ईद के जो कपड़े पड़े है हम वही पहेनलेंगे । उन के सारे दलाइल जैसे कॉपी पेस्ट किये हों । उस वक़्त दुनियाँ की सब से समझदार और ज़्यादा इल्म रखने वाली बेटी ही लगी । बेटी की ये बात सुन कर मौलवी साहब ने नज़रें उठाई एक नज़र बेटी के चेहरे पर डाली कुछ देर के लिए गर्दन फ़ख्र से तन गई । मौलवी साहब को अपना कद ऊंचा बहोत ऊंचा मेहसूस हुवा लेकिन अगले ही पल बच्चियों की मासुमाना ख़्वाहिशात का यूँ खुदकुशी करना  उन को तोड़ गई । बेबस नाकाम बाप जो ईद पर भी ज़रूरत की और खवाहिश भी पूरी न कर सका । मौलवी साहब से ये सब  बर्दाश्त न हुवा जल्दी से कमरे में जा कर सोने का केह कर बिस्तर में घुस गए और वहाँ होंठ सीलिये मुँह को दबाया और अपनी आँखों को कहा तुम आज़ाद हो बरस लो वरना गम के अन्दर के सुनामी से मर ही जाओगे ।
   सुबह उठ कर मौलवी साहब नमाज़ के लिए चले गए । वापस आये तो छोटी बेटी ने 10-20-50 के कुछ नॉट अपने हाथों में पकड़े हुए बोली बाबा ये पैसे है आप एसा करो कि भाई को कपड़े ला कर दे दो उस को कल आप के साथ मस्ज़िद भी तो जान है और वो छोटा है गली में खेलेगा तो सब क्या कहेंगे । ये और एक धमाका था लेकिन बहन का भाई के लिए प्यार क्या होता है सब समझ मे आ गया । हमारे माशरे में अक्सर मौलवी हज़रात की जिन्दगी इसी तरह की कश मकश की शिकार है । वो शख्श जो पूरे मोहल्ले को ईद की नमाज़ पढ़ता है को मौलवी ही है हमारे बच्चों को क़ुरआन पढ़ना सीखाता है पाँचों वक़्त की अज़ान भी मौलवी ही देता है यहाँ तक कि सुबह सुबह उठ कर अपनी नींद को छोड़ कर फज़र की अज़ान भी मौलवी ही देता है । और हमें इस्लाम की बातें  भी मौलवी ही सिखाता है नमाज़ भी मौलवी के पीछे पढ़ी जाती है । और तो और निकाह भी मौलवी से पढ़वाया जाता है । ज़रा सी बात हो जाये मौलवी के पास दौड़े चले जाते है । हर मसले के लिए मौलवी के पास भागते हैं । यहाँ तक के नमाज़ ए ज़नाज़ा के लिये भी मौलवी के मोहताज हैं । लेकिन फिर भी मौलवियों का मज़ाक भी हम ही उड़ाते है क्यों ???? उन की तनख्वाह आज भी हमारे समाज मे सब से कम है ।

*ये कश्मकश है ज़िंदगी की कैसे बसर करें ?*
 *चादर बड़ी करें या ख़्वाहिशे दफ़न करें !*


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