||‘दरी’ और ‘दारी’ की बात||

||‘दरी’ और ‘दारी’ की बात||

कोस कोस पर बदले पानी,चार कोस पर बानी
चपन से युवावस्था तक अपन मालवी-उमठवाड़ी परिवेश वाले राजगढ़-ब्यावरा में पले-बढ़े हैं। मालवी में जब हाड़ौती का तड़का लगता है तो उमठवाड़ी बनती है। हालाँकि राजगढ़-ब्यावरा मूल रूप से मध्यप्रदेश के मालवांचल में ही आता है फिर भी इस इलाके की स्थानीय पहचान उमठवाड़ के नाम से भी है। बहरहाल अक्सर महिलाओं के आपसी संवादों में ‘दारी’ और ‘दरी’ इन शब्दों का अलग अलग ढंग से इस्तेमाल सुना करते थे। ‘दरी’ में जहाँ अपनत्व और साख्य-भाव है वहीं ‘दारी’ में उपेक्षा और भर्त्सना का दंश होता है। ‘दरी’ का प्रयोग देखें- “रेबा दे दरी” अर्थात रहने दो सखि। “आओ नी दरी” यानी सखि, आओ न। “अरी दरी, असाँ कसाँ हो सके” मतलब ऐसा कैसे हो सकता है सखि! इसके ठीक विपरीत ‘दारी’ शब्द का प्रयोग बतौर उपेक्षा या गाली के तौर पर किया जाता है जैसे- “दारी, घणो मिजाज दिखावे”, भाव है- इसकी अकड़ तो देखो!
री’ और ‘दारी’ के भेद को समझने की कोशिश लम्बे वक्त से जारी थी। सिर्फ एक स्वर के अंतर से ‘दरी’ में समाया सखिभाव तिरोहित होकर दारी में उपेक्षा अथवा गाली में कैसे तब्दील हो जाता है ? ‘दरी’ का प्रयोग नन्हीं-नन्हीं बच्चियों से लेकर बड़ी-बूढ़ी औरतें तक करती हैं। हाँ, दारी का प्रयोग वयस्क महिलाओं के आपसी संवाद में ही होता है। दूर तक फैले मालवा के बारे में अपने सीमित अनुभवों के बावजूद कह सकता हूँ कि इस पर बृजभाषा का काफी प्रभाव है। दारी बृज में भी प्रचलित है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी दारी के बारे में लिखते हैं- “बृज में ‘दारी’ बहुत प्रचलित है। औरतों को गाली देने के काम आता है। परन्तु इस शब्द का तात्विक अर्थ क्या है, बृज के लोग आज भी नहीं जानते। साहित्यिक भी ‘दारी’ का अर्थ नहीं जानते। कोश-ग्रन्थों में दासी का रूपान्तर दारी बतलाया गया है! दासी से दारी कैसे बना ? कोई पद्धति भी है? कुछ नहीं! और दासी कहकर या नौकरानी कह कर कोई गाली नहीं देता। गाली में बेवकूफी, दुष्टता, दुश्चरित्रता जैसी कोई चीज़ आनी चाहिए”
निश्चित तौर पर ‘दारी’ शब्द के मूल में दुश्चरित्रता का ही भाव है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ‘दारी’ का रिश्ता ‘दारा’ से जोड़ते हैं जिसमें पत्नी, भार्या का भाव है। वे लिखते हैं, “ दारा एक की भार्या, और दारी सबकी, भाड़े की” । तो क्या 'दारा' में 'ई' प्रत्यय लगा देने से अधिष्ठात्री की अर्थवत्ता बदल कर वेश्या हो जाती है? 'पति' में पालनकर्ता, स्वामी का भाव है। इससे ही 'पतित' बना होगा, ऐसा मान लें ? मेरे विचार में मालवी, बृज के ‘दारी’ शब्द में वेश्या, व्यभिचारिणी या दुश्चरित्रा के अर्थ स्थापन की प्रक्रिया वही रही है जैसी हिन्दी के ‘छिनाल’ शब्द की रही। ‘छिनाल’ का रिश्ता संस्कृत के ‘छिन्न’ अथवा प्राकृत के ‘छिण्ण’ से है जिसका अर्थ विभक्त, टूटा हुआ, विदीर्ण, फाड़ा हुआ, खण्डित, विनष्ट आदि। ध्यान रहे छिन्न > छिण्ण से विकसित छिनाल में चरित्र-दोष इसीलिए स्थापित हुआ क्योंकि समाज ने बतौर कुलवधु उसकी निष्ठा में दरार देखी, टूटन देखी या उसे विभक्त पाया। संस्कृत की ‘दृ’ धातु में जहाँ विदीर्ण, विभक्त जैसे भाव हैं वहीं इससे मान, सम्मान, शान, अदब जैसे आशय भी निकलते हैं। आदर, आदरणीय जैसे शब्द ‘दृ’ से ही बने हैं। ‘समादृत’ जैसे साहित्यिक शब्द में ‘दृ’ की स्पष्ट रूप से पहचाना हो रही है|
त्नी के अर्थ में हिन्दी संस्कृत में जो ‘दारा’ शब्द है उसमें स्त्री के पतिगृह की अधिष्ठात्री, पत्नी, अर्धांगिनी जैसे रुतबे वाला आदरभाव है। दारा में आदर वाला ‘दृ’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में ‘दारिका’ के दो रूप दिए हैं। एक का विकास ‘दृ’ के टूटन, विभाजन वाले अर्थ से होता है तो दूसरे का विकास सम्मान, अदब आदि भावों से। ‘दारिका’ का एक अर्थ जहाँ वेश्या है वहीं दूसरी ओर इसका अर्थ कन्या, पुत्री, पुत्र आदि भी है। स्पष्ट है कि सखि के तौर पर मालवी में जो ‘दरी’ शब्द है वहाँ ‘दृ’ में निहित आदर का भाव स्नेहयुक्त लगाव में परिवर्तित होता दिखता है और इसीलिए मालवांचल के देहात में ‘दरी शब्द आज भी खूब प्रचलित है वहीं गाली-उपालम्भ के तौर पर 'दारी' की अर्थवत्ता भी कायम है। अलबत्ता सभ्य समाज में जो वेश्या है ‘दारी’ उसे न कहते हुए आपसदारी की गाली में ‘दारी’ देहाती परिवेश में आज भी चल रहा है।

यह लेख https://shabdavali.blogspot.com/2014/09/blog-post.html?m=1 से लिया गया है 

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