दुआ-ए-रीम (दुल्हन को नसीहत/दुल्हन की बगावत)
दुआ-ए-रीम : अगर आप ने शोएब मंसूर की लिखी ये ग़ज़ल न पढ़ी तो समझिए आप ने कुछ नही पढ़ा
*दुल्हन को नसीहत*
लब पे आवे है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िंदगी अम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी
मेरा ईमां हो शौहर की इताअत करना
उन की सूरत की न सीरत की शिकायत करना
घर में गर उन के भटकने से अंधेरा हो जावे
नेकियां मेरी चमकने से उजाला हो जावे
धमकियां दे तो तसल्ली हो के थप्पड़ न पड़ा
पड़े थप्पड़ तो करूं शुक्र के जूता न हुआ
हो मेरा काम नसीबों की मलामत करना
बीवियों को नहीं भावे है बगावत करना
मेरे अल्लाह लड़ाई से बचाना मुझको
मुस्कुराना गालियां खा के सिखाना मुझको
*दुल्हन की बगावत*
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
घर तो उनका हो हुकूमत हो खुदाया मेरी
मैं अगर बत्ती बुझाऊं के अंधेरा हो जाए
मैं ही बत्ती को जलाऊं के उजाला हो जाए
मेरा ईमान हो शौहर से मुहब्बत करना
न इताअत न गुलामी न इबादत करना
न करूं मैयके में आकर मैं शिकायत उनकी
करनी आती हो मुझे खुद ही मरम्मत उनकी
आदमी तो उन्हें तूने है बनाया या रब
मुझको सिखला उन्हें इंसान बनाना या रब
घर में गर उनके भटकने से अंधेरा हो जाए
भाड़ में झोंकू उनको और उजाला हो जाए
वो हो शाहीन तो मौला मैं शाहीना हो जाऊं
और कमीने हो तो मैं बढ़ के कमीनी हो जाऊं
लेकिन अल्लाह मेरे ऐसी न नौबत आए
वो रफाकत हो के दोनों को राहत आए
वो मुहब्बत जिसे अंदेशा-ए-ज़वाल न हो
किसी झिड़की, किसी थप्पड़ का भी सवाल न हो
उनको रोटी है पसंद, मुझको है भावे चावल
ऐसी उल्फत हो कि हम रोटी से खावे चावल
*दुआ-ए-रीम*
लेखक : शोएब मंसूर
*दुल्हन को नसीहत*
लब पे आवे है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िंदगी अम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी
मेरा ईमां हो शौहर की इताअत करना
उन की सूरत की न सीरत की शिकायत करना
घर में गर उन के भटकने से अंधेरा हो जावे
नेकियां मेरी चमकने से उजाला हो जावे
धमकियां दे तो तसल्ली हो के थप्पड़ न पड़ा
पड़े थप्पड़ तो करूं शुक्र के जूता न हुआ
हो मेरा काम नसीबों की मलामत करना
बीवियों को नहीं भावे है बगावत करना
मेरे अल्लाह लड़ाई से बचाना मुझको
मुस्कुराना गालियां खा के सिखाना मुझको
*दुल्हन की बगावत*
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
घर तो उनका हो हुकूमत हो खुदाया मेरी
मैं अगर बत्ती बुझाऊं के अंधेरा हो जाए
मैं ही बत्ती को जलाऊं के उजाला हो जाए
मेरा ईमान हो शौहर से मुहब्बत करना
न इताअत न गुलामी न इबादत करना
न करूं मैयके में आकर मैं शिकायत उनकी
करनी आती हो मुझे खुद ही मरम्मत उनकी
आदमी तो उन्हें तूने है बनाया या रब
मुझको सिखला उन्हें इंसान बनाना या रब
घर में गर उनके भटकने से अंधेरा हो जाए
भाड़ में झोंकू उनको और उजाला हो जाए
वो हो शाहीन तो मौला मैं शाहीना हो जाऊं
और कमीने हो तो मैं बढ़ के कमीनी हो जाऊं
लेकिन अल्लाह मेरे ऐसी न नौबत आए
वो रफाकत हो के दोनों को राहत आए
वो मुहब्बत जिसे अंदेशा-ए-ज़वाल न हो
किसी झिड़की, किसी थप्पड़ का भी सवाल न हो
उनको रोटी है पसंद, मुझको है भावे चावल
ऐसी उल्फत हो कि हम रोटी से खावे चावल
*दुआ-ए-रीम*
लेखक : शोएब मंसूर
Comments
Post a Comment