इस लॉक_डाउन के दौरान की एक सच्ची कहानी

*(इस लॉक_डाउन के दौरान की एक सच्ची कहानी)*

सात अप्रैल की रात एक साहब के निशानदेही पर एक सफ़ेद पोश खानदान को राशन देने के बाद, जब घर लौटने के लिए चौक से गुज़रा, तो हर तरफ अंधेरे और घटाटोप का राज था। ऐसे अँधेरे में एक धीमी सी आवाज़ आई! " #भाई_मदद " मैं ये सोचकर नज़रअंदाज़ करना चाहा कि एक पेशेवर गदागर होगा, लेकिन दिल में ख़्याल आया कि अगर एक पेशेवर होता तो इस वक्त अंधेरे में यूँ खड़ा नहीं होता, गाड़ी रोक कर पास गया और देखा! अंधेरे में एक आदमी मुंह पर हाथ रखे खड़ा है।



"जी भाई! कैसी मदद चाहिए? और अंधेरे में यूँ मुंह ढँके क्यों खड़े हो? अपना हाथ हटाइये।"
मेरे कहने पर उसने अपने हाथ चेहरे से हटा लिए।

अल्लाह की पनाह…!  उस शख्स के गाल आंसुओं से भरे हुए थे और घुटी घुटी आवाज में रो रहा था, दोनों हाथों को अपने गालों से हटाकर माफी माँगने के अंदाज में हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अपना सिर नीचे झुका लिया।  मैं इस अंधेरे में भी उसके आंसूओं को थोड़ा टपकता देख सकता था, और अंदर ही अंदर कुछ टूटता हुआ महसूस होने लगा, आगे बढ़ा और दुबारा हमदर्दी से पूछा।
 "भाई, कुछ तो कहिए ..."
 कुछ कहने के बजाय वह शख्स आगे बढ़ा और गले लगकर धहाड़ें मारके रोने लगा और कहने लगा ...
 "भाई ... भाई ... मैं भूखा रह लूँगा लेकिन मुझे अपनी दो छोटी बच्चियों की भूख देखी नहीं जाती। उनका भूख से तड़पना, बिलखना मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। कल से घर पर खाने को एक दाना नहीं है।"  और मेरी बच्चियां सुबह से बाबा भूख लगी है, बाबा भूख लगी है, बाबा खाना खिलाओ की फरयाद कर रही हैं।
भाई! जिन्दगी में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि मेरी बच्चियां भूखी सोई हो। रोजाना खाने के साथ बच्चियों के लिए फ्रूट्स लाता था आज बच्चियां कह रही हैं हमें फ्रूट्स मत दो, हम ज़िद नहीं करेंगी। लेकिन आप हमें खाना तो देदो। बाबा आप तो हमारी हर बात मानते थे, अभी हम खाना मांग रहे हैं तो खाना क्यों नहीं दे रहे हो?
साहब मैं फक़ीर नहीं हूँ। लॉकडाउन की वजह से हालात ऐसे हो गए, कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। साहब आप घर चलकर देख लो कि आटे का एक ज़र्रा भी निकले तो जो चोर की सजा। आप मेरा आईडी कार्ड रख लो। बस मेरी बच्चियों को चलकर अपने हाथ से खाना दे दो मैं और मेरी बीवी भूखे सो जाएंगे। ”

यह कहकर वे शख्स फिर से फूट फूट कर रोने लगा।
मेरे दिल में ख्याल आया कि मैं भी बेटी का बाप हूँ खुदा ना करे मेरी बेटी पर कभी ऐसा वक्त..... नहीं....नहीं.....। अल्लाह की क़सम दिल फटता महसूस होने लगा...  सारा जिस्म कांप सा गया ... ज़बान जैसे बोलना भूल गयी ...
खामोशी से उस शख्स को गाड़ी में बिठाया और घर की तरफ चल दिया, दौराने सफर उसने बताया कि मेरा नाम साबिर है। 13 साल से घरों पर पेंटर का काम कर रहा है। मेहनत मजदूरी करके अपना गुज़र बसर कर रहा था, लेकिन लॉकडाउन की वजह से हालात ख़राब हो गए। जान पहचान वालों से माँगने की हिम्मत नहीं पड़ी।

घर पहुंचकर मैंने राशन के थेले गाड़ी में रखे और साबिर के घर की जानिब रवाना हो गया। घर क्या था बस एक कमरा था, वही ड्राइंग रूम, वही बेडरूम और वही रसोई, न सोफे और न ही बिस्तर, न ही अलमारी और न ही फ्रिज। बस एक कोने में, बुझा चूल्हा साबिर की मुफलिसी को मुँह चिड़ा रहा था, और दूसरे कोने में दो फूल सी बच्चियां भूख की चादर ताने सो रही थीं।  साबिर की बेगम ने कहा कि भाई साहब जब लड़कियों का रोना बर्दाश्त नहीं हुआ, तो मैंने खांसी की दवा का शरबत पिलाकर सुला दिया।

अंदर रूह तक जेसै किसी ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया हो।
सिसकते दिल, कंपकपाते हाथों और नम आँखों के साथ, कमरे के कोने में राशन के थैले रखे और, बच्चियाें पर प्यार भरी नज़र डालकर, इस दुआ के साथ साबिर के घर से बाहर निकल गया कि: “ऐ अल्लाह!  इन बच्चियाें के नसीब अच्छे फरमा, अपनी मख़लूक़ पर रहम फरमा, भूखों की मदद फरमा.... आमीन...

आप सभी अपने अपने मोहल्ले में पता करें कि कोई साबिर आपकी गली में तो नहीं रहता है ?
*क्योंकि मांगने वाले फकीर का टेंशन नहीं है, ऐसे लोगों का बूरा हाल है*
एक बार यह छोटा सा दर्द पूरा पढ़ कर अपने ऊपर गौर करके देखिए कि अगर साबिर की जगह मैं होता तो क्या होता..... यह भी अपने आप से सवाल कीजिए कि मैं ग़रीबों की कितनी मदद कर सकता हूँ और अब तक कितनी की है ?

ग़रीबों की हालत खराब है, अपने ख़जा़ने के गेट खोलिए, आपका ख़जा़ना कम नहीं होगा.... ان شاء الله عزوجل.... अल्लाह इसको कई गुना बढ़ा देगा।

Comments

Popular posts from this blog

तलबीना की अहमियत

कल्कि अवतार (पंडित वेद प्रकाश ब्राह्मण)

مسواک کے ستر (70) فوائد