शायरी और अशआर

परों को खोल जमाना उड़ान देखता है l

ज़मीन पे बैठ कर क्या आसमान देखता है l

मीला है हुस्न तो इस हुस्न की हिफाज़त कर l

संभल कर चल की तुझे सारा जहान देखता है l


ज़िंदगी को गमों की लज्जतों से मत मेहरूम कर l

रास्ते के पत्थरों से भी खैरियत मालुम कर l

उठ अपने तलवार के टूटे हुए टुकडों को समेंट l

अपने हार जाने का सबब मालुम कर l


मीटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे l

की दाना खाक में मिलकर ही गुल-ए-गुलज़ार होता है l


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