रेशमी रुमाल शेखुल हिंद मौलाना महमूद हसन देवबंदी

"तहरीक ए रेशमी रुमाल" शुरू  करने वाले और जंग-ए-आजादी में अहम किरदार निभाने वाले मौलाना "महमूद हसन देवबंदी" जिन को "शेखुल हिंद" का लकब दिया गया
तहरीक रेशमी रुमाल शुरू कर जंग-ए-आजादी में अहम किरदार निभाने वाले मौलाना महमूद हसन देवबंदी शेखुल हिंद का जन्म सन 1851 में दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक सदस्य मौलाना जुल्फिकार अली देवबंदी के यहां रायबरेली में हुआ था। शेखुल हिंद ने इब्तिदाई तालीम अपने चाचा मौलाना महताब अली से हासिल की। 6 मई सन् 1866 को दारुल उलूम देवबंद की स्थापना के समय शेखुल हिंद दारुल उलूम देवबंद के पहले छात्र बने। उन्‍होंने शेखुल हिंद ने इल्मे हदीस दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक हजरत मौलाना कासिम नानोतवी से प्राप्त की। 1874 में दारुल उलूम देवबंद के उस्ताद के पद पर चयन हुआ और दारुल उलूम के सदरुल मदर्रिसीन बनाए गए।
देश को आजादी दिलाने के लिए अनेक वीर सपूतों ने अपने प्राणों की बलि दी थी। अनेकों वीर ऐसे भी हुए जो अपने ही तरीके से आंदोलन करते रहे। आजादी के इस आंदोलन में जाति और धर्म से ऊपर उठकर आंदोलनकारियों ने आजादी का बिगुल फूंका था। आजादी के आंदोलन में विश्वप्रसिद्ध इस्लामिक शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद का योगदान भी कम नहीं रहा। यहां से शुरू हुआ 'तहरीक-ए-रेशमी रुमाल' ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। इसके तहत रुमाल पर गुप्त संदेश लिखकर इधर से उधर भेजे जाते थे, जिससे अंग्रेजी फौज को आंदोलन के तहत की जाने वाली गतिविधियों की खबर नहीं लग सके।
रेशमी रुमाल पर लिखे जाते थे संदेश
दारुल उलूम देवबंद के मोहतमित अबुल कासिम नौमानी बताते हैं कि देश की आजादी में दारुल देवबंद का अहम रोल रहा है। उन्‍होंने बताया कि देश को अंग्रेजों के चंगुल व देशवासियों को अंग्रेजों के जुल्मों सितम से बचाने का दर्द दिल में लेकर 1901 में शेखुल हिंद अपने साथियों के साथ मिलकर कोशिश करने लगे। उन्‍होंने देश ही नहीं, बल्कि विदेशों तक अपना नेटवर्क स्थापित कर लिया।
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