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Showing posts from June, 2018

अद्भुत है इंसान का शरीर

*(वैज्ञानिकों ने बताया कितना दिलचस्प है इंसान का शरीर )* *अद्भुत है इंसान का शरीर* *जबरदस्त फेफड़े* हमारे फेफड़े हर दिन 20 लाख लीटर हवा को फिल्टर करते हैं. हमें इस बात की भनक भी नहीं लगती. फेफड़ों को अगर खींचा जाए तो यह टेनिस कोर्ट के एक हिस्से को ढंक देंगे. *ऐसी और कोई फैक्ट्री नहीं* हमारा शरीर हर सेकंड 2.5 करोड़ नई कोशिकाएं बनाता है. साथ ही, हर दिन 200 अरब से ज्यादा रक्त कोशिकाओं का निर्माण करता है. हर वक्त शरीर में 2500 अरब रक्त कोशिकाएं मौजूद होती हैं. एक बूंद खून में 25 करोड़ कोशिकाएं होती हैं. *लाखों किलोमीटर की यात्रा* इंसान का खून हर दिन शरीर में 1,92,000 किलोमीटर का सफर करता है. हमारे शरीर में औसतन 5.6 लीटर खून होता है जो हर 20 सेकेंड में एक बार पूरे शरीर में चक्कर काट लेता है. *धड़कन, धड़कन* एक स्वस्थ इंसान का हृदय हर दिन 1,00,000 बार धड़कता है. साल भर में यह 3 करोड़ से ज्यादा बार धड़क चुका होता है. दिल का पम्पिंग प्रेशर इतना तेज होता है कि वह खून को 30 फुट ऊपर उछाल सकता है. *सारे कैमरे और दूरबीनें फेल* इंसान की आंख एक करोड़ रंगों में बारीक से बारीक अंत...

शायरी

1- किसको क्या मिले इसका कोई हिसाब नहीं। तेरे पास रूह नहीं मेरे पास लिबास नहीं 2- *हटा कर खाक को दाना उठाना सीख लेता है* *परिंदा चार पल में फड़फड़ाना सीख लेता है* *गरीबी ला कर देती है बिन मांगे हुनर ऐसा* *की नाज़ुक पाँव भी रिक्शा* *चलाना सीख लेता है* 3- *तेरे सब्र की कोई मिसाल नहीं ऐ, मुसलमां*, *लबों, पर प्यास की शिद्दत ओर हाथ में वज़ु का पानी।*,    زندگی کی دوڑ میں تجربہ کچا ہی رہ گیا ہم سیکھ نہ پائے فریب اور دل بچہ ہی رہ گیا گزرتے لمحوں میں صدیا تلاش کرتا ہوں پیاس اتنی ہے کی ندیاں تلاش کرتا ہوں یہاں پر لوگ گناتیں ہے خوبیاں اپنی میں اپنے آپ میں کمیاں تلاش کرتا ہوں

अपनी ज़कात सही हाथो में दें

बहुत उल्झन मे हूँ कि *ईद* मनाऊँ कैसे ? सेँवई भी नहीं है कपङा सिलाऊँ कैसे ? अहले *हैसीयत* चमकेंगे और चहकेंगे पर मैं अपने बच्चों को *सजाऊँ* कैसे ? बच्चे ही हैं *खिलौने* की ज़िद किए बैठे हैं घर मे *पैसे* नहीं हैं उनको समझाऊँ कैसे ? फितरा  *ज़कात*  से  कुछ  *उम्मीद*  बंधी  है  *मुस्तहक* हूँ इसका पर लोगों को *बताऊँ* कैसे ?  *रौनक* होगी हर घर मे बस मेरा घर छोङकर ऐ दोस्त!तू ही बता वह दिन मै *बिताऊँ* कैसे ? ( *अपनी ज़कात सही हाथो में दें ताकि किसी की ईद अच्छी मन सके* ).

||‘दरी’ और ‘दारी’ की बात||

||‘दरी’ और ‘दारी’ की बात|| कोस कोस पर बदले पानी,चार कोस पर बानी ब चपन से युवावस्था तक अपन मालवी-उमठवाड़ी परिवेश वाले राजगढ़-ब्यावरा में पले-बढ़े हैं। मालवी में जब हाड़ौती का तड़का लगता है तो उमठवाड़ी बनती है। हालाँकि राजगढ़-ब्यावरा मूल रूप से मध्यप्रदेश के मालवांचल में ही आता है फिर भी इस इलाके की स्थानीय पहचान उमठवाड़ के नाम से भी है। बहरहाल अक्सर महिलाओं के आपसी संवादों में ‘दारी’ और ‘दरी’ इन शब्दों का अलग अलग ढंग से इस्तेमाल सुना करते थे। ‘दरी’ में जहाँ अपनत्व और साख्य-भाव है वहीं ‘दारी’ में उपेक्षा और भर्त्सना का दंश होता है। ‘दरी’ का प्रयोग देखें- “रेबा दे दरी” अर्थात रहने दो सखि। “आओ नी दरी” यानी सखि, आओ न। “अरी दरी, असाँ कसाँ हो सके” मतलब ऐसा कैसे हो सकता है सखि! इसके ठीक विपरीत ‘दारी’ शब्द का प्रयोग बतौर उपेक्षा या गाली के तौर पर किया जाता है जैसे- “दारी, घणो मिजाज दिखावे”, भाव है- इसकी अकड़ तो देखो! ‘ द री’ और ‘दारी’ के भेद को समझने की कोशिश लम्बे वक्त से जारी थी। सिर्फ एक स्वर के अंतर से ‘दरी’ में समाया सखिभाव तिरोहित होकर दारी में उपेक्षा अथवा गाली में कैसे तब्दील ह...